परमेश्वर का इच्छा मनुष्यों के लिए

सारे मानव जाति के लिए परमेश्वर का इच्छा
इसलिये हे भाइयो, मैं तुम से परमेश्वर की दया स्मरण दिला कर बिनती करता हूं, कि अपने शरीरों को जीवित, और पवित्र, और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान करके चढ़ाओ: यही तुम्हारी आत्मिक सेवा है। 2 और इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नए हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो।
रोमियों 12: 1-2 का लक्ष्य है कि सम्पूर्ण जीवन ‘‘आत्मिक आराधना’’ बन जावे। पद 1: ‘‘अपने शरीरों को जीवित, और पवित्र, और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान करके चढ़ाओ: यही तुम्हारी आत्मिक सेवा (सही अनुवाद- आराधना) है। परमेश्वर की दृष्टि में सभी मानव जिन्दगियों का लक्ष्य ये है कि मसीह को उतना ही मूल्यवान् दिखाया जावे जितना कि ‘वह’ है। आराधना का अर्थ है, हमारे मन और हृदयों और शरीरों को, परमेश्वर के मूल्य को, और जो कुछ ‘वह’ यीशु में हमारे लिए है, अभिव्यक्त करने के लिए उपयोग करना। जीने का एक तरीका है — प्रेम करने का एक तरीका — जो यह करता है। आपकी नौकरी/धंधे को करने का एक तरीका है जो परमेश्वर के सच्चे मूल्य को अभिव्यक्त करता है। यदि आप इसे ढूंढ नहीं सकते, तो इसका अर्थ हो सकता है कि आपको नौकरी या पेशा बदलना चाहिए। अथवा इसका अर्थ हो सकता है कि पद 2 उस अंश तक घटित नहीं हो रहा है, जितना इसे होना चाहिए।
पद 2, पौलुस का उत्तर है कि कैसे हम सम्पूर्ण जीवन को आराधना में बदल दें। हमें रूपान्तरित होना चाहिए। हमें रूपान्तरित होना चाहिए। मात्र हमारा बाहरी व्यवहार नहीं, अपितु हम जिस तरह से अनुभूति करते और सोचते हैं—हमारे मन। पद 2: ‘‘तुम्हारी बुद्धि के नए हो जाने सेतुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए।’’

आप क्या हैं, बन जाइये

वे जो मसीह यीशु में विश्वास करते हैं, मसीह में लोहू-से-खरीदे-गए नये जीव बन चुके हैं। ‘‘यदि कोई मसीह में है तो वह नई सृष्टि है’’ (2 कुरिन्थियों 5:17)। किन्तु अब हमें वो बन जाना चाहिए जो हम हैं। ‘‘पुराना खमीर निकाल कर, अपने आप को शुद्ध करो: कि नया गूंधा हुआ आटा बन जाओ; ताकि तुम अखमीरी हो’’ (1 कुरिन्थियों 5: 7)।
‘‘तुम ने … नए मनुष्यत्व को पहिन लिया है जो अपने सृजनहार के स्वरूप के अनुसार ज्ञान प्राप्त करने के लिये नया बनता जाता है’’ (कुलुस्सियों 3:10)। तुम्हें मसीह में नया बना दिया गया है; और अब तुम दिन-प्रतिदिन नया बनते जाते हो। यही है जिस पर हमने विगत सप्ताह ध्यान केन्द्रित किया था।
अब हम पद 2 के अन्तिम भाग पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, यथा, नयी हो गई बुद्धि का लक्ष्य: ‘‘इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नए हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, {अब यहाँ लक्ष्य आता है} जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो।’’ अतः आज का हमारा केन्द्र है, शब्द ‘‘परमेश्वर की इच्छा’’ का अर्थ, और हम इसे कैसे जानें।

परमेश्वर की दो मनसाएं/इच्छाएं

बाइबिल में ‘‘परमेश्वर की इच्छा’’ शब्द के लिए दो स्पष्ट और बहुत भिन्न अर्थ हैं। हमें उन्हें जानना और ये निर्णय लेना कि यहाँ रोमियों 12:2 में कौन सा उपयोग किया जा रहा है, आवश्यक है। वास्तव में, ‘‘परमेश्वर की इच्छा’’ के इन दो अर्थों के बीच अन्तर को जानना, सम्पूर्ण बाइबिल में सबसे बड़ी और सर्वाधिक व्याकुल करनेवाली चीजों में से एक, की समझ के लिए महत्वपूर्ण है, यथा, यह कि परमेश्वर सभी चीजों के ऊपर प्रभुसत्ता-सम्पन्न है और फिर भी कई चीजों को नापसन्द करता (या निर-अनुमोदन करता) है। जिसका अर्थ है कि परमेश्वर कुछ को नापसन्द करता है जिसे ‘वह’ घटित होने के लिए निर्धारित करता है। अर्थात्, ‘वह’ कुछ चीजों का निषेध करता है, जिन्हें ‘वह’ होने देता है। और ‘वह’ कुछ चीजों की आज्ञा देता है, जिन्हें ‘वह’ बाधित करता है। अथवा, इसे सर्वाधिक विरोधाभासी रूप में रखने के लिए: परमेश्वर कुछ घटनाओं की एक भाव में इच्छा करता है जिनकी ‘वह’ दूसरे अर्थ में इच्छा नहीं करता।
1. परमेश्वर की राजाज्ञा-की-इच्छा, अथवा प्रभुसत्ताक-इच्छा
आइये हम धर्मशास्त्र के परिच्छेदों को देखें जो हमें इस तरह सोचने को बाध्य करते हैं। पहिले उन परिच्छेदों पर विचार करें जो ‘‘परमेश्वर की इच्छा’’ को, सब कुछ जो घटित होता है उस पर प्रभुसत्ताक नियंत्रण के रूप में, वर्णन करते हैं। एक सर्वथा स्पष्टतम् है, जिस तरह यीशु ने गतसमनी में परमेश्वर की इच्छा के बारे में कहा, जब ‘वह’ प्रार्थना कर रहा था। मत्ती 26:39 में ‘उसने’ कहा, ‘‘हे मेरे पिता, यदि हो सके, तो यह कटोरा मुझ से टल जाए; तौभी जैसा मैं चाहता हूं वैसा नहीं, परन्तु जैसा तू चाहता हैवैसा ही हो।’’ इस आयत में परमेश्वर की इच्छा क्या संकेत करती है? यह परमेश्वर की प्रभुसत्ताक योजना की ओर संकेत करती है जो आने वाले घण्टों में घटित होवेगी। आप याद कीजिये कि प्रेरित 4: 27-28 इसे कैसे कहता है: ‘‘क्योंकि सचमुच तेरे पवित्र सेवक यीशु के विरोध में, जिसे तू ने अभिषेक किया, हेरोदेस और पुन्तियुस पीलातुस भी अन्य जातियों और इस्राएलियों के साथ इस नगर में इकट्ठे हुए कि जो कुछ पहिले से तेरी सामर्थ (तेरे हाथ) और मति से ठहरा था वहीं करें।’’ अतः ‘‘परमेश्वर की इच्छा’’ यह थी कि यीशु मरे। ये ‘उसकी’ योजना थी, ‘उसकी’ राजाज्ञा। इसे बदला नहीं जाना था और यीशु ने सिर झुकाया और कहा, ‘‘ये है मेरा निवेदन, परन्तु करने के लिए जो सर्वोत्तम है, तू कर।’’ वो है परमेश्वर की प्रभुसत्ताक इच्छा।
और यहाँ बहुत महत्वपूर्ण बिन्दु मत छोड़ दीजिये कि यह मनुष्य के पापों को सम्मिलित करता है। हेरोदेस, पीलातुस, सैनिक, यहूदी अगुवे — उन सभों ने, परमेश्वर की इच्छा को परिपूर्ण करने में कि ‘उसका’ पुत्र क्रूसित किया जावे, पाप किया (यशायाह 53:10)। अतः इस बारे में स्पष्ट हो जाइये: परमेश्वर कुछ ऐसा घटित होने की इच्छा करता है, जिससे ‘वह’ घृणा करता है।
पहिला पतरस से यहाँ एक उदाहरण है। 1 पतरस 3:17 में पतरस लिखता है, ‘‘यदि परमेश्वर की यही इच्छा हो, कि तुम भलाई करने के कारण दुःख उठाओ, तो यह बुराई करने के कारण दुःख उठाने से उत्तम है।’’ दूसरे शब्दों में, ये परमेश्वर की इच्छा हो सकती है कि मसीहीगण भलाई करने के कारण दुःख उठायें। ‘उसके’ मन में सताव है। लेकिन उन मसीहियों का सताव जो इसकी पात्रता नहीं रखते, पाप है। अतः पुनः, कभी-कभी परमेश्वर इच्छा करता है कि ऐसी घटनाएँ घटित हों जिनमें पाप सम्मिलित है। ‘‘यदि परमेश्वर की यही इच्छा हो, कि तुम भलाई करने के कारण दुःख उठाओ।’’
                                 प्रभु मैं आपका सेवक
                                PR.SURENDRA BANDHAV
SURENDRABANDHAV@025GMAIL.COM 
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